Anand Kumar
निवेश की दुनिया में सच्चाई अक्सर कुछ साधारण आंकड़ों के पीछे छिपी होती है. इस महीने की म्यूचुअल फ़ंड इनसाइट की कवर स्टोरी एक ऐसा ही कड़वा सच सामने लाती है—हमारे फ़ंड्स जितना कमाते हैं, हम निवेशक उतना नहीं कमा पाते. इसके आंकड़े चौंकाने वाले हैं—जहां फ़ंड्स ने 18% का रिटर्न दिया, वहीं निवेशकों को केवल 8% मिला. आख़िर ये 10% कहां चला गया? न किसी छिपी फ़ीस में, न मार्केट की साज़िश में—बल्कि एक बहुत निजी वजह में.
असल दोषी, वो इंसान है जो आईने में हमें दिखाई देता है.
ये परफ़ॉर्मेंस गैप कोई थ्योरी नहीं—ये गणित की बात है, मापना जा सकता है और बेहद अहम है. दस साल में यही गैप लाखों रुपये का नुक़सान कर सकता है, जो किसी बच्चे की पढ़ाई या घर के डाउन पेमेंट में इस्तेमाल हो सकते थे. सबसे ज़्यादा खलने वाली बात ये है कि फ़ंड्स ने अपना वादा निभाया—हमने ही अपने आपको उसका फ़ायदा नहीं उठाने दिया.
हम ख़ुद ही अपनी कामयाबी को क्यों रोकते हैं? इसका जवाब हमारे दिमाग़ की बनावट में छिपा है. हम उस धैर्य के लिए डिज़ाइन नहीं हुए हैं जिसकी निवेश को ज़रूरत होती है. हमारा दिमाग़ जल्दी ख़तरे पहचानने और तुरंत फ़ायदे उठाने के लिए बना है—जो आदिम युग में तो ठीक था, पर आज के फ़ाइनेंशियल मार्केट के लिए नहीं.
एक उदाहरण है 'Recency Bias'—यानि हाल की घटनाओं को ज़्यादा महत्व देना. कोई फ़ंड अच्छा प्रदर्शन करता है तो हम दौड़कर उसमें निवेश करते हैं, ठीक उस समय जब वो अपनी ऊंचाई पर होता है. गिरावट आते ही डरकर बेच देते हैं, अक्सर तब जब वो सबसे सस्ता होता है. ये व्यवहार सिर्फ़ नौसिखियों तक सीमित नहीं है—ये एक इंसानी स्वभाव है. जैसे ट्रैफ़िक में हम बार-बार लेन बदलते हैं क्योंकि लगता है दूसरी लेन तेज़ चल रही है.
हमारे आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं. क़रीब 40% निवेशक दो साल के भीतर ही फ़ंड से बाहर निकल जाते हैं—जबकि यही वो वक़्त होता है जब कंपाउंडिंग की असली ताक़त शुरू होती है. हमारी कवर स्टोरी में मौजूद 'निवेश और निवेशक के रिटर्न के बीच का फ़र्क़' की टेबल इस अधीरता के नतीजों को साफ़ दिखाती है—हर फ़ंड में निवेशकों के रिटर्न उससे कम हैं जो फ़ंड ने असल में कमाए.
फिर आती है 'Herd Mentality'—भीड़ के साथ चलने की आदत. इससे तसल्ली तो मिलती है, लेकिन फ़ाइेंशियल मार्केट अक्सर भीड़ की सोच को सज़ा देता है. रैली के बाद फ़ंड में पैसा तेज़ी से आता है, जब दाम ऊंचे होते हैं. गिरावट में सब भाग जाते हैं, जब असल में डिस्काउंट पर ख़रीदारी का मौक़ा होता है. गूगल ट्रेंड्स भी यही दिखाता है—मार्केट जब टॉप पर होता है तो 'म्यूचुअल फ़ंड' की सर्च भी अपने चरम पर होती हैं और गिरावट में ग़ायब हो जाती हैं.
इन ग़लतियों का सबसे मुश्किल पहलू ये है कि उस वक़्त ये सब 'बिल्कुल सही' लगता है. हर फ़ैसला—धीमे फ़ंड को छोड़ना, गर्मागर्म सेक्टर की ओर लपकना, और गिरते बाज़ार में कैश पर बैठना—अलग से देखेंगे तो तर्कसंगत लगेगा. लेकिन इन्हें एक साथ देखेंगे, तो इसका ख़ुद को धोखा देने वाला पैटर्न समझ में आएगा.
अच्छी बात ये है कि बदलाव की पहली सीढ़ी 'जानकारी' है. इसका इलाज कोई रॉकेट साइंस नहीं, बल्कि उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल चीज़ है—डिसिप्लिन या अनुशासन. लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टमें, अलग-अलग मार्केट साइकल्स में डटे रहना, SIP से ऑटोमैटिक इन्वेस्टमेंट करना, समझदारी से डाइवर्सिफ़िकेशन और सालाना री-बैलेंसिंग—ये सब पुराने नियम तो हैं, लेकिन आज भी सबसे ज़्यादा असरदार हैं.
इस महीने के मैगज़ीन इशू की कवर स्टोरी दिखाती है कि 2008 के क्रैश से ठीक पहले शुरू की गई SIP, बाद में किए गए लंपसम या एकमुश्त इन्वेस्टमेंट से बेहतर साबित होती है. SIP कोई जादू नहीं है, लेकिन ये हमें ख़ुद से बचा लेता है. मार्केट गिरता है तो ज़्यादा यूनिट्स मिलती हैं, और महंगा होता है तो कम—बस, सारा खेल यही है.
बेंजामिन ग्राहम की एक बात याद आती है— "निवेशक की सबसे बड़ी मुश्किल - और उसका सबसे बड़ा दुश्मन - शायद वो ख़ुद ही है." असल सफलता मल्टीबैगर पकड़ने या मार्केट टाइम करने में नहीं, बल्कि एक अच्छी रणनीति पर टिके रहने में है—तब भी जब शक हो.
ये कवर स्टोरी कोई फटकार नहीं, बल्कि एक आईना है. अपने पूर्वाग्रहों को पहचान लेने से वो मिटेंगे नहीं, लेकिन शायद हम ख़ुद को सही निवेश के बाद भी ग़लत रास्ते पर जाने से बचा पाएंगे.