अगर आप मार्केट के उतार-चढ़ावों से घबराए हुए हैं, तो केनेथ एंड्राडे की आज के दौर में निवेश को लेकर बातें बड़े काम की लगेंगी. ओल्ड ब्रिज म्यूचुअल फ़ंड के अनुभवी फ़ंड मैनेजर और सीआईओ ने एक नोट लिखा है, जो यथार्थवाद और भरोसा लौटाने वाली सलाहों की बेहतरीन मिसाल है.
पहले बुरी ख़बर (क्योंकि आप इसे पहले से जानते हैं): ग्लोबल मैक्रो माहौल अस्त-व्यस्त है. एंड्राडे इसे छुपाते नहीं. ऊंचे इवैलुएशन, भावनात्मक निवेशक और आम सा "इंतज़ार करो और देखो" का मूड—इसमें शेयर क़ीमतों में आतिशबाज़ी की गुंजाइश कम है. वे स्वीकार करते हैं, भारतीय इक्विटी महंगी हैं, और कॉरपोरेट भारत के बड़े खिलाड़ी बस अपने कैश पर बैठे हैं.
लेकिन फिर आता है "परिदृश्य निर्माण - हमारा नज़रिया", जिसमें ग्लोबल ट्रेड में क्या ग़लत हो रहा है, उसकी एक लंबी लिस्ट है—और ये कैसे अजीब तरह से भारत के पक्ष में काम कर सकती है. एंड्राडे भविष्यवाणी करते हैं कि अमेरिका ट्रेड बैलेंस चाहता है (प्रतिबंध नहीं), टैरिफ़ बढ़ सकते हैं, मांग कम हो सकती है, और महंगाई बनी रह सकती है. क्या ये निराशाजनक है? बिल्कुल नहीं. जैसा कि वे बताते हैं, "ऊंची महंगाई दर = ऊंची अंतिम-उत्पाद की क़ीमतें = उत्पादकों के लिए बेहतर मुनाफ़े की स्थिति". उनके इस तर्क में सकारात्मकता झलती है.
फिर आता है असली दांव: "नतीजों पर सकारात्मक नज़रिया?" एंड्राडे सुझाव देते हैं कि जैसे ही अमेरिकी कंपनियां डी-स्टॉकिंग शुरू करेंगी, कैश फ़्री होगी, जो बेहतर काम को अंजाम देने वाले इनोवेशन में चुपचाप एक कैपेक्स बूम ट्रिगर करेंगी. हालांकि, रातोंरात फ़ैक्ट्रियां उगने की उम्मीद न करें—लेकिन क्या स्मार्ट मशीनें आएंगी? शायद.
एंड्राडे का भारत को लेकर नज़रिया और साहसी हो जाता है. भारत, अपने बड़े मार्केट और बड़ी जनसंख्या की ताक़त के साथ, ग्लोबल खिलाड़ियों के लिए इतना आकर्षक है कि वे इसे नाराज़ नहीं करना चाहेंगे. उनका मानना है? हमें "नरमी से हैंडल किया गया है—चेतावनी तो दी गई है, पर सज़ा नहीं." (ये देख लो, वियतनाम और मैक्सिको.)
और अगर आप सोच रहे हैं कि इसका ओल्ड ब्रिज पोर्टफ़ोलियो के लिए क्या मायने है, तो उसका सार कुछ इस तरह है: वे भारतीय कंपनियों पर बड़ा दांव लगा रहे हैं जो "ग्लोबल स्तर पर प्रतिस्पर्धी हैं, कैटेगरी में लीडर हैं, और कम लागत में निर्माण करने वाली" हैं—इसलिए नहीं क्योंकि ये सुनने में अच्छा लगता है, बल्कि इसलिए कि ये कंपनियां लंबे समय के लिए बनी हैं, जिनके कैश फ़्लो 2035 तक फैले हुए हैं. एंड्राडे की टीम सब्सिडी पर निर्भर कंपनियों से दूरी बनाए रख रही है और असली वैल्यू की तलाश में है: ऐसी भारतीय कंपनियां जो ग्लोबलाइज़ेशन के नाराज़ होने पर भी फल-फूल सकती हैं.
निवेशकों के लिए उनका अंतिम नोट? क्लासिक केनेथ:
"जब क़ीमत कम हो, तब ख़रीदो."
कोई भारी-भरकम और मुश्किल शब्दों का जाल नहीं, कोई दिखावा नहीं—बस एक रिमाइंडर कि मंदी के मार्केट में ही शानदार पोर्टफ़ोलियो बनाए जाते हैं. अगर आप घबराए हुए हैं, तो ठीक है. बस ग़ायब मत हों.
कुल मिला कर: दुनिया को घबराने दें. भारत और आपका पोर्टफ़ोलियो शायद सबसे टॉप पर निकल आए.
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ये लेख पहली बार अप्रैल 17, 2025 को पब्लिश हुआ.