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IDFC फ़र्स्ट बैंक बार-बार क्यों मांग रहा है पैसा?

जानिए क्यों बार-बार इक्विटी डायल्यूशन से ही ग्रोथ कर रहा है IDFC फ़र्स्ट बैंक और इससे लॉन्ग-टर्म निवेशकों पर क्या असर पड़ेगा

IDFC फ़र्स्ट बैंक बार-बार पैसे क्यों जुटा रहा है?AI-generated image

इस हफ़्ते की शुरुआत में, IDFC फ़र्स्ट बैंक ने वारबर्ग पिंकस और अबू धाबी इन्वेस्टमेंट अथॉरिटी से ₹7,500 करोड़ जुटाने का ऐलान किया. इस डील के बाद ये दोनों निवेशक मिलकर बैंक में क़रीब 15% की हिस्सेदरी रखेंगे.

आपको लग रहा है कि ऐसा पहले भी सुना है, तो आप ग़लत नहीं हैं. IDFC फ़र्स्ट बैंक बार-बार निवेशकों से पैसा जुटाने के लिए मार्केट में आता रहा है. ये सिलसिला लगभग वैसा ही है जैसे इसके ग्राहक लगातार लोन टॉप-अप इसने संपर्क करते हैं. और बदलाव और पैमाने की सभी बातों के बावजूद, बड़ा सवाल ये है कि हर साल अपनी लोन बुक को 20-25% की रफ़्तार से बढ़ने वाले बैंक को बार-बार पैसों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?

IDFC फ़र्स्ट बैंक को बार-बार पैसों की ज़रूरत क्यों?
पहली नज़र में, ये ये आम बात नहीं है. बैंकिंग में तेज़ी से ग्रोथ के लिए बड़ी पूंजी चाहिए होती है. नियम कहते हैं कि बैंक हर ₹100 लोन के लिए, बैंक को अपनी पूंजी (कैपिटल एडेक्वेसी रेशियो) का क़रीब ₹12-13 अलग रखना चाहिए. ऐसे में कोई बैंक तेज़ी से बढ़ना चाहता है, तो उसे अपने कैपिटल बेस को भी उतनी ही तेज़ी से बढ़ाना होगा.

ऐसा करने के दो तरीके़ हैं: लगातार मुनाफ़ा कमाओ या नई इक्विटी जारी करो. DFC फ़र्स्ट बैंक की परेशानी ये है कि वो लगातार अच्छा मुनाफ़ा नहीं कमा पाई. इक्विटी पर रिटर्न सिंगल डिजिट में अटका होने के कारण बैंक के पास शेयरहोल्डर को कमज़ोर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. इस मामले में, ग्रोथ पूंजी के बढ़ने से नहीं हुई है - बल्कि इसे और ज़्यादा जारी करने से हुई है.

FY20 और FY25 की तीसरी तिमाही बीच बैंक की नेटवर्थ ₹22,000 करोड़ से ज़्यादा बढ़ी, जिसमें से इसका सिर्फ़ 70% हिस्सा नई इक्विटी से आया. प्रॉफिट से सिर्फ़ ₹7,237 करोड़ मिले. यानि, शेयरहोल्डर को बिल का भुगतान करते रहने के लिए कहा गया है, जबकि उनकी पूंजी पर रिटर्न पिछड़ गया है.

ग्रोथ है, पर वैल्यू कहां है?
ये हमें एक और बुनियादी बात पर ले आता है बैंकिंग में ग्रोथ तभी अच्छी है जब वो मुनाफे़दार हो. FY18 से IDFC फ़र्स्ट बैंक के लोन तो चार गुना बढ़ गए, लेकिन प्रति शेयर बुक वैल्यू मुश्किल से ₹44 से ₹52 तक ही बढ़ी. इससे ये बात साफ़ हो जाती है कि बैंक ग्रोथ कर रहा है लेकिन नए शेयर जारी करने से निवेशकों की वैल्यू नहीं बढ़ पा रही है.

वहीं, बजाज फ़ाइनांस को देखिए. वो भी पैसे जुटाता है, लेकिन तभी जब वैल्यूएशन अच्छा हो. बजाज फ़ाइनांस के निवेशकों की वैल्यू बढ़ती रहती है क्योंकि उसका ROE लगातार 20% से ऊपर रहता है. निवेशक कम करने का स्वागत करते हैं - क्योंकि ये पाई को कम करने के बजाय और बढ़ाता है.

इसके विपरीत, IDFC फ़र्स्ट बैंक की पूंजी जुटाने की प्रक्रिया रक्षात्मक रही है. इसके बिना, बैंक की बुक वैल्यू भी गिर सकती थी, विरासत में मिले घाटे और हाई ऑपरेटिंग कॉस्ट के कारण.

IDFC फ़र्स्ट बैंक की FY29 पिच: बुलंद, लेकिन अधूरी
बैंक का टारगेट FY29 तक ₹12,000-13,000 करोड़ का मुनाफ़ा और 18-19% ROE हासिल करना है. अगर ये टारगेट हासिल हो जाता है, तो ये आज के प्रदर्शन से काफ़ी बड़ा बदलाव होगा. लेकिन इससे भी एक नया सवाल उठता है: इसके बाद क्या होगा?

18% ROE पर ₹12,000 करोड़ मुनाफ़ा कमाने के लिए बैंक को लगभग ₹70,000 करोड़ नेट वर्थ चाहिए, जो अभी के मुक़ाबले दोगुनी है. क्या ये बिना किसी और कमी के इतना मुनाफ़ा कमा सकती है? इसकी मौजूदा मुनाफ़े वाली स्थिति को देखते हुए ऐसा होने की संभावना नहीं है. और इसलिए, ये साइकिल खुद को दोहरा सकता

हां, मार्केट कैप बढ़ सकता है, लेकिन शेयरों की संख्या भी बढ़ेगी. और यही लॉन्ग-टर्म निवेशकों के लिए यही चिंता की बात है. असल मुनाफ़ा इसी बात पर निर्भर करता है कि आपका हिस्सा कितना बचता है, न कि सिर्फ बिजनेस कितना बड़ा होता है.

स्थिरता पर नहीं बल्कि तेज़ ग्रोथ पर बनी स्ट्रैटेजी
इस दबाव का कुछ हिस्सा बैंक की ग्रोथ स्ट्रैटेजी से जुड़ा हुआ है. तेज़ ग्रोथ पाने के लिए IDFC फ़र्स्ट बैंक ने ज़्यादा ब्याज पर डिपॉज़िट जुटाए, जिससे उसके फ़ंड की लागत बढ़ गई. तेज़ी से ब्रांच खोले, और इस प्रक्रिया में, इसने कई नुक़सान भी झेले- पहले इंफ्रास्ट्रक्चर लोन से, और अब माइक्रोफ़ाइनांस सेगमेंट में तनाव से.

स्थिर, कम लागत वाली जमाराशि आधार बनाने और यूनिट इकॉनमी पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, बैंक ने गति को चुना. बैंकिंग में, ये नज़रिया शायद ही कभी लाभदायक होता है. पूंजी एक बाधा है, कोई वस्तु नहीं. और स्थिरता कोई मील का पत्थर नहीं है - ये बिज़नेस मॉडल है.

पुराने निवेशक की वापसी, क्या ये खुशी की बात है?
वारबर्ग पिंकस की वापसी भले ही अच्छी ख़बर लग रही हो, लेकिन याद रखें कि वारबर्ग भी IDFC फ़र्स्ट बैंक के साथ मर्जर से पहले (कैपिटल फर्स्ट) का शुरुआती समर्थक था, और पिछले साल पूरी तरह एग्जिट लिया था. उनकी वापसी नए सिरे से दिलचस्पी का संकेत दे सकती है, लेकिन इसे एक नई अंडरराइटिंग के बजाय पुरानी फ़ाइल पर फिर से गौर करने के रूप में भी पढ़ा जा सकता है.

लॉन्ग-टर्म निवेशक को क्या करना चाहिए?
निवेशकों के लिए, असली सवाल यह नहीं है कि क्या IDFC फ़र्स्ट बैंक बढ़ेगा. ये ज़रूर बढ़ेगा. बल्कि, असली सवाल ये है कि IDFC फ़र्स्ट बैंक की ग्रोथ मुनाफे़ और मज़बूत ROE के साथ आएगी या फिर सिर्फ़ लगातार शेयर जारी कर निवेशकों की हिस्सेदारी कमज़ोर करती रहेगी. क्योंकि जब तक बैंक अपने पैरों पर खड़ा होकर खुद पूंजी नहीं बढ़ाता, निवेशकों को फ़ायदा कम और बोझ ज़्यादा मिलेगा.

बैंकिंग में, उधार देने की तरह, जो बात मायने रखती है वो ये नहीं है कि आप कितना वितरित करते हैं. ये मायने रखता है कि आप कितना कलेक्ट करते हैं.

इससे पहले कि आप अगले बड़े स्टॉक का पीछा करें: मगर किस क़ीमत पर?
IDFC फ़र्स्ट बैंक जैसी तेज़ी से बढ़ती कंपनियों को संभालना मुश्किल हो सकता है. ग्रोथ के आंकड़े प्रभावशाली लग सकते हैं, लेकिन लगातार मुनाफ़ा कमाने और इक्विटी पर मज़बूत रिटर्न के बिना, शेयरहोल्डर की वैल्यू बढ़ने के बजाय कम हो सकती है.

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ये लेख पहली बार अप्रैल 22, 2025 को पब्लिश हुआ.

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