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2000 के शुरुआती दशक में वॉल स्ट्रीट पर अविश्वास का माहौल बन रहा था. डॉट-कॉम बबल फूट चुका था, जिससे कई निवेशक नुक़सान में थे, और इनरॉन व वर्ल्डकॉम जैसे कॉरपोरेट घोटालों ने फ़ाइनेंशियल रिपोर्टिंग पर से भरोसा तोड़ दिया था. इस उथल-पुथल के बीच वॉरेन बफ़ेट ने अपने ख़ास अंदाज़ में बाज़ार में अस्थिरता पैदा करने वाले चलन पर सवाल उठाए और उन भ्रमों को उजागर किया जो असली जोखिम को छुपा रहे थे.
2002 से 2004 तक के बफ़ेट के पत्र शायद सबसे ग्लैमरस नहीं थे, लेकिन ये सबसे अहम ज़रूर थे. ये वो दौर था जब बफ़ेट सिर्फ़ समझदार निवेशक नहीं, बल्कि सिस्टम की ख़ामियों पर सवाल उठाने वाले आलोचक के रूप में उभरे. इस स्टोरी में हम उनके उन इनसाइट्स को सामने रख रहे हैं जो उन्होंने अपने सालाना पत्रों में दर्ज किए.
डेरिवेटिव्स: जब मुनाफ़ा बनावटी और जोखिम असली होता है
2002 में बफ़ेट ने डेरिवेटिव्स को "वित्तीय सामूहिक विनाश के हथियार" कहा था. ये लाइन सुर्खियों में छा गई थी. लेकिन इससे भी गहरी बात ये थी: डेरिवेटिव्स सिर्फ़ जोखिम भरे नहीं हैं—वे भ्रामक भी हैं.
डेरिवेटिव्स असल में ऐसे कॉन्ट्रैक्ट होते हैं जो किसी और चीज़—जैसे ब्याज दर, स्टॉक प्राइस या मौसम—की वैल्यू पर आधारित होते हैं. चिंता की बात ये है कि जब तक ये कॉन्ट्रैक्ट सेटल नहीं होते, कंपनियां इन वादों को मुनाफ़े या नुक़सान के रूप में दर्ज कर सकती हैं—जबकि असल में कोई पैसे का लेन-देन नहीं हुआ होता.
इनकी वैल्यू तय करने के लिए कंपनियां अक्सर आंतरिक मॉडल—"मार्क-टू-मॉडल"—का इस्तेमाल करती हैं, न कि असल बाज़ार क़ीमतों का. सैद्धांतिक रूप से ये ठीक लगता है, लेकिन व्यवहार में इससे काग़ज़ी मुनाफ़ा बढ़ता है और सीईओ को बड़ा बोनस मिलता है. बफ़ेट ने इसे "मार्क-टू-मिथ" कहा क्योंकि ये कंपनी की वित्तीय स्थिति की ग़लत तस्वीर पेश करता है.
असल ख़तरा तब आता है जब मार्केट का मूड बदलता है. कई डेरिवेटिव्स के तहत कंपनियों को अपनी हालत बिगड़ने पर ज़मानत (collateral) जमा करनी होती है, जिससे अचानक कैश का संकट आ सकता है. और चूंकि ये कॉन्ट्रैक्ट कई संस्थानों को आपस में जोड़ते हैं, एक की समस्या पूरे सिस्टम को हिला सकती है.
बफ़ेट ये नहीं कह रहे थे कि डेरिवेटिव्स बेकार हैं—वो ख़ुद भी इनका सीमित इस्तेमाल करते थे. लेकिन उनका मानना था कि बढ़ती जटिलता, कमज़ोर अकाउंटिंग स्टैंडर्ड्स और ख़राब प्रोत्साहनों की वजह से ये सिस्टम बेहद नाज़ुक बन गया है. उनका निवेशकों और रेगुलेटरों को सुझाव था: जटिल कॉन्ट्रैक्ट्स को समझदारी भरा जोखिम प्रबंधन मत समझिए.
बोर्ड फ़ेल क्यों होते हैं और इसे कैसे सुधारा जाए
इस दौर में बफ़ेट की सबसे तीखी टिप्पणियों में से एक कॉरपोरेट गवर्नेंस की असफलता पर थी—ख़ासकर बोर्ड्स की निष्क्रियता पर.
बफ़ेट ने कहा कि बोर्डरूम सामाजिक माहौल होते हैं. सीईओ को चुनौती देना, किसी प्रस्तावित अधिग्रहण पर सवाल उठाना या बहुत ज़्यादा वेतन का विरोध करना असभ्य लग सकता है—ख़ासकर जब बाहर के सलाहकार पहले से सहमत हों.
इसलिए उन्होंने सुझाव दिया कि बाहरी निदेशक सीईओ की अनुपस्थिति में नियमित रूप से बैठक करें. लेकिन सिर्फ़ ढांचा काफ़ा नहीं होता. असल फ़र्क़ मानसिकता से पड़ता है. स्वतंत्र निदेशकों को बिज़नस की समझ होनी चाहिए, शेयरहोल्डर के हितों का तरफ़दार होना चाहिए और जब ज़रूरत हो तब सर्वसम्मति को चुनौती देने का साहस होना चाहिए.
उन्होंने कंपनसेशन कंसंल्टेंट्स की भूमिका की आलोचना की और इस प्रवृत्ति की भी कि बोर्ड उनके सुझावों को बिना सवाल किए मानते चलते हैं. उन्होंने एक और गहरी समस्या उजागर की: कई निदेशक बोर्ड फ़ीस पर निर्भर होते हैं या उन्हें भविष्य में और नियुक्तियों की उम्मीद होती है. ये निर्भरता उनकी स्वतंत्रता को कम कर देती है—जितना रेगुलेटर समझते हैं, उससे कहीं ज़्यादा.
बफ़ेट का साफ़ मानना था कि जब तक मालिक (यानी बड़े निवेशक) सक्रिय नहीं होंगे, गवर्नेंस में सुधार संभव नहीं. बड़े संस्थागत निवेशकों के पास बदलाव की मांग करने की ताक़त है—लेकिन उन्हें दर्शक नहीं, मालिक की तरह बर्ताव करना होगा.
ऑडिटर्स, इन चार सवालों के जवाब दें
बफ़ेट कहते हैं कि ऑडिट कमिटी ऑडिट नहीं करती. तो फिर वे क्या करें? उनका असली काम है ऐसे तीखे, स्पष्ट सवाल पूछना जो ऑडिटरों को सच्चाई बताने पर मजबूर करें. और ये सवाल समय रहते पूछे जाएं—कमाई जारी होने से पहले, प्रेस रिलीज़ से पहले.
बफ़ेट ने चार ज़रूरी सवाल सुझाए:
- अगर रिपोर्ट बनाना आपके ऊपर होता, तो क्या आप इन्हें अलग तरह से तैयार करते?
- बतौर निवेशक, क्या ये रिपोर्ट आपको वो सब कुछ बताती हैं जो जानना चाहिए?
- क्या कंपनी का आंतरिक नियंत्रण इतना मज़बूत है कि उस पर भरोसा किया जा सके?
- क्या किसी आमदनी या ख़र्च को तिमाही दर तिमाही शिफ़्ट किया गया है?
अगर इन सवालों के जवाब रिकॉर्ड, साझा और चर्चा में लाए जाएं, तो कई गड़बड़ियां शुरू होने से पहले ही पकड़ में आ सकती हैं. अगर नहीं, तो फ़ुटनोट से जब कोई कॉकरोच बाहर दौड़े तो हैरान मत होना.
तीन निवेश नियम जो दीवार पर फ़्रेम किए जा सकते हैं
2002 के पत्र में छिपे तीन बफ़ेट सिद्धांत ऐसे हैं जो हर निवेशक को फ़्रेम कर अपने वॉल पर लगाने चाहिए:
- कमजोर अकाउंटिंग से सावधान रहिए. अगर कोई कंपनी स्टॉक ऑप्शन को ख़र्च के तौर पर नहीं दिखा रही या पेंशन के अनुमानों को व्यवहारिक नहीं मान रही है, तो समझ जाइए कि दूसरे मामलों में भी गड़बड़ी हो सकती है.
- जटिल भाषा वाले डिस्क्लोज़र से सतर्क रहिए. अगर आप फ़ुटनोट नहीं समझ पा रहे, तो शायद इसलिए कि मैनेजमेंट नहीं चाहती कि आप समझें.
- सटीक मुनाफ़े के अनुमान पर शक कीजिए. बिज़नस सीधी लाइन में नहीं चलते. अगर कोई सीईओ लगातार हर तिमाही अनुमान पूरा कर रहा है, तो हो सकता है कि वो उम्मीदों को नहीं, आंकड़ों को मैनेज कर रहा हो.
क्यों ज़्यादातर निवेशक पिछड़ जाते हैं—और इसके बजाय क्या करना चाहिए
2004 में बफ़ेट ने एक कड़वे सच को स्वीकारा: कॉरपोरेट अमेरिका ने दशकों में शानदार रिटर्न दिए हैं. फिर भी ज़्यादातर निवेशक पीछे रह जाते हैं. क्यों?
उन्होंने तीन वजहें बताईं:
- ऊंची लागत. ज़्यादा ट्रेडिंग, फ़ीस और कमीशन रिटर्न को खा जाते हैं.
- फ़ंडामेंटल की जगह फ़ैशन का पीछा. कई निवेशक ट्रेंड्स के पीछे भागते हैं, बिज़नस को समझने की जगह.
- ग़लत समय पर निवेश. बाज़ार चढ़ने पर ख़रीदते हैं और गिरने पर बेचते हैं.
उनका समाधान? लागत कम रखें, लंबे समय के लिए निवेश करें और मार्केट को टाइम करने से बचें. बफ़ेट ने माना कि जब सब लालची होते हैं, तब लालची होना लुभावना होता है. लेकिन अनुमान लगाने से ज़्यादा अनुशासित रहना मायने रखता है.
इंश्योरेंस: बर्कशायर की ताक़त का साइलेंट इंजन
बफ़ेट के निवेश दर्शन और शेयरहोल्डर की सीखों के पीछे जो इंजन काम करता है, वो है—इंश्योरेंस.
“फ़्लोट” वो पैसा है जिसे बर्कशायर मुफ़्त में निवेश कर सकता है—जब तक अंडरराइटिंग में मुनाफ़ा हो रहा हो. और बर्कशायर में अक्सर ऐसा ही होता है. क्यों? क्योंकि वो वही करते हैं जो ज़्यादातर बीमा कंपनियां नहीं कर पातीं: जब दाम बेहूदा हों, तो बिज़नस घटा देते हैं.
1986 से 1999 तक, बर्कशायर का इंश्योरेंस बिज़नस बड़े पैमाने पर घटा. वजह ये नहीं कि उन्हें बिज़नस नहीं मिल रहा था—बल्कि इसलिए कि वे उसे सस्ते में लेने को तैयार नहीं थे. न कोई छंटनी, न किसी भी क़ीमत पर ग्रोथ—सिर्फ़ अनुशासन.
गेको (GEICO) में वे सबसे सस्ते ऑपरेटर बनकर जीतते हैं. री-इंश्योरेंस में, वे वही नाम हैं जिस पर आप आपदा के समय भरोसा करते हैं. और हर जगह उनका मंत्र एक है: इंश्योरेंस एक कमोडिटी हो सकती है, लेकिन वादे नहीं.
संयम की शांत ताक़त
अगर 2002 से 2004 तक के बफ़ेट पत्रों में एक कॉमन थीम है, तो वो है: संयम की ताक़त को कम मत आंकिए.
मुनाफ़े को बढ़ा-चढ़ा कर मत दिखाइए. सीईओ को ज़रूरत से ज़्यादा मत दीजिए. जो समझ नहीं आता उसमें दांव मत लगाइए. अगर इंश्योरेंस में दाम बेवक़ूफ़ी भरे हों, तो ग्रोथ मत खोजिए. और सबसे बढ़कर—जटिलता को गहराई मत समझिए. दुनिया पहले से ही काफ़ी शोरगुल वाली है. निवेश को ऐसा नहीं होना चाहिए.
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ये लेख पहली बार अप्रैल 25, 2025 को पब्लिश हुआ.