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2008 के वित्तीय संकट के बाद के वर्षों में, पूरी दुनिया सदमे और भ्रम में डूबी थी. लेकिन वॉरेन बफ़ेट नहीं. जब निवेशक कैश की ओर भाग रहे थे, बांड्स को थामे बैठे थे और तस्वीर साफ़ होने की दुआएं कर रहे थे, बफ़ेट उस दशक निवेश के सबसे महत्वपूर्ण सबक़ लिख रहे थे.
2008 से 2011 के पत्रों की सबसे उल्लेखनीय बात ये थी कि वे केवल दूरदर्शी नहीं थे, बल्कि घबराहट के बीच भी बेहद शांत थे. डेरिवेटिव्स, स्टॉक बायबैक, कॉर्पोरेट डीलमेकिंग, बीमा अनुशासन—बफ़ेट ने सब कुछ खुलकर सामने रखा. और इस प्रक्रिया में उन्होंने वो स्पष्टता दी जो कोई केंद्रीय बैंक भी नहीं दे सकता था. क्योंकि असली जोखिम बाज़ार की अस्थिरता नहीं है. असली जोखिम मानसिक अस्थिरता है. जब दुनिया सांस लेना भूल जाए, तब सोचना कैसे न भूलें—यही असली हुनर है.
ये कहानी, बफ़ेट की हर साल जारी होने वाली चिट्ठियों पर हमारी सीरीज़ का हिस्सा है, जो 2008-11 के पत्रों में उनके द्वारा दी गई स्पष्टता और बारीक़ी को खोलती है.
जब दुनिया घबराई, बफ़ेट ने पलक तक नहीं झपकाई
2008 में निवेश की दुनिया को मानसिक पतन का सामना करना पड़ा. फ़ाइनेंशियल मार्केट्स में तेज़ गिरावट थी, बड़ी-बड़ी संस्थाएं ढह रही थीं और हर कोई सुरक्षा की तलाश में था. ऐसे समय में लोग अक्सर कैश जमा करते हैं या सरकारी बांड ख़रीदते हैं, ये मानते हुए कि कुछ न करना ही सबसे अक्लमंदी का काम है.
लेकिन बफ़ेट की राय अलग थी. उन्होंने चेताया कि कैश या बेहद कम रिटर्न वाले सरकारी बांड्स से चिपके रहना कोई सुरक्षित उपाय नहीं, बल्कि एक धीमा रक्तस्राव है. उन्होंने ये भी आगाह किया कि बाज़ार की प्रचलित धारणा के पीछे चलना नुक़सानदेह हो सकता है. जब एक्सपर्ट 'कैश इज़ किंग' का जाप कर रहे थे, तब बफ़ेट ने उलट कर कहा कि कैश लगभग कुछ भी नहीं कमाता और समय के साथ उसकी ख़रीदने की ताक़त भी घिसती जाती है.
उनके शब्दों में, "हां में हां मिलाना अक्सर दिमाग़ को सुस्त कर देता है." और एक ऐसा वाक्य जो हर निवेशक की मेज़ पर उकेरा जाना चाहिए: "उस निवेश से सावधान रहें जो तालियों की गड़गड़ाहट लाता है; महान फ़ैसले अक्सर ऊबाऊ होते हैं."
यही बफ़ेट का क्लासिक स्टाइल है—याद दिलाना कि लोकप्रिय राय अक्सर पिछड़ा हुआ संकेत होती है, दिशा दिखाने वाली कुतुबनुमा नहीं.
डेरिवेटिव्स की समस्या? यह केवल जटिल नहीं, संक्रामक भी है
बफ़ेट 2002 से ही डेरिवेटिव्स को "वित्तीय सामूहिक विनाश के हथियार" कह रहे थे. 2008 में ये हथियार सचमुच फट गए. क्रेडिट, ब्याज दरों और इक्विटी से जुड़े जटिल अनुबंध बिखरने लगे, उन संस्थाओं को भी गिरा दिया जो कुछ महीने पहले तक अडिग लगती थीं.
बेयर स्टर्न्स का पतन बफ़ेट के पुराने डर की मिसाल बन गया: एक ऐसी नेटवर्किंग जहां काग़ज़ी दावे वायरस की तरह फैलते हैं. जब डेरिवेटिव्स बिगड़ते हैं, तो वे केवल उन्हें बनाने वाली कंपनियों को नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम को ख़तरे में डाल देते हैं.
बफ़ेट ने कहा कि पारदर्शिता भी मदद नहीं कर सकती. आप उस चीज़ को ठीक नहीं कर सकते जिसे आप सही मायने में समझते ही नहीं हैं. डेरिवेटिव्स की दुनिया में, अनुभवी ऑडिटर्स तक अनुमान ही लगाते हैं. उत्पाद जितना जटिल, उतना ही ये संभावना बढ़ जाती है कि यहां तक कि CEO को भी असली स्थिति का अंदाज़ा नहीं होता.
बेईमानी वाले सौदे
2009 में बफ़ेट ने कॉर्पोरेट डीलमेकिंग, विशेषकर स्टॉक-फ़ॉर-स्टॉक मर्जर पर ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने एक साधारण सच्चाई बताई जिसे अक्सर कॉर्पोरेट बोर्ड भूल जाते हैं: अगर आपकी अपनी कंपनी का शेयर कम वैल्युएशन पर है, तो उसे किसी दूसरी कंपनी के अधिग्रहण के लिए इस्तेमाल करना वैल्यू का विनाश है. फिर भी, ऐसा अक्सर होता है.
क्यों? क्योंकि CEO बड़े सौदों को पसंद करते हैं. इससे प्रतिष्ठा बढ़ती है, मीडिया में सुर्ख़ियां मिलती हैं और आमतौर पर सैलरी भी. शेयरधारकों के लिए सौदे का औचित्य अक्सर पीछे छूट जाता है. बफ़ेट ने इस पर अपनी ख़ास स्पष्टता के साथ चोट की: साइज़ समझदारी का संकेत नहीं है, और कम वैल्युएशन वाले शेयरों को "स्ट्रैटेजिक फ़िट" के नाम पर बांटना अक्सर महज़ साम्राज्य विस्तार का दूसरा नाम होता है.
बायबैक का मिथक
स्टॉक बायबैक आधुनिक CEO का पसंदीदा हथियार है—अक्सर इसे "शेयरधारकों को वैल्यू लौटाने" के तरीक़े के तौर पर पेश किया जाता है. लेकिन 2011 में बफ़ेट ने स्पष्ट चेतावनी दी: बायबैक तभी वैल्यू बढ़ाते हैं जब शेयरों को उनके आंतरिक मूल्य (इंट्रिंसिक वैल्यू) से कम पर ख़रीदा जाता है. वरना ये केवल एक फ़ाइनेंंशियल बाज़ीगरी है.
उन्होंने इसे बर्कशायर के IBM में होल्डिंग से समझाया. अगर IBM ने अपने $50 बिलियन बायबैक प्लान से सस्ते में शेयर ख़रीदे, तो बर्कशायर की हिस्सेदारी बढ़ती. लेकिन अगर महंगे दाम पर ख़रीदे, तो फ़ायदा ख़त्म हो जाता. विडंबना? लंबे अर्से के लिए निवेश करने वालों को, बायबैक के दौरान, कम स्टॉक क़ीमत की कामना करनी चाहिए. यही वैल्यू इन्वेस्टर का असली नज़रिया है: प्राइस या क़ीमत वो है जो आप चुकाते हैं, वैल्यू वो है जो आप पाते हैं.
बीमा को स्वस्थ रखने वाला अनुशासन
2011 तक, बफ़ेट फिर बीमा की बात कर रहे थे—बर्कशायर की सफलता की रीढ़. उन्होंने सटीक अंडरराइटिंग के चार नियम बताए: जोखिम को समझो, उचित वैल्युएशन करो, रूढ़िवादी वैल्युएशन करो, और अगर सही क़ीमत न मिले तो सौदा छोड़ दो.
आख़िरी प्वाइंट पर उन्होंने ख़ास ज़ोर दिया. ज़्यादातर बीमा कंपनियां वहीं चूक जाती हैं. वे प्रतिस्पर्धियों की ग़ैर-वाजिब प्राइसिंग का मुक़ाबला करने से ख़ुद को रोक नहीं पातीं. "अगर वे कर रहे हैं, तो हमें भी करना चाहिए" वाली सोच ही कंपनियों को डुबोती है—सिर्फ़ बीमा में नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में.
महान निवेश का कड़वा सच
इन पत्रों से हमें कोई चमकदार रहस्य नहीं मिलते. न कोई हॉट स्टॉक टिप्स हैं, न बाज़ार भविष्यवाणियां. इसके बजाय, जो मिलता है वो कहीं ज़्यादा क़ीमती है: रिस्क, मूल्य और अनुशासन को लेकर एक स्पष्ट सोचने का ढांचा.
2008-2011 के दौरान बफ़ेट का सबसे बड़ा सबक़ ये नहीं था कि क्या ख़रीदना है. बल्कि ये था कि जब पूरी दुनिया अपना संयम खो रही हो, तब आप अपना दिमाग कैसे ठंडा रखें.
और यही, किसी भी स्प्रेडशीट या थ्योरी से बढ़कर, अच्छे और महान निवेशकों के बीच का असली फ़र्क बनाता है.
ये लेख पहली बार अप्रैल 29, 2025 को पब्लिश हुआ.