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भारत का 2030 तक 500 गीगावाट नॉन फोसिल फ्यूल कैपेसिटी हासिल करने से जुड़ा रिन्युएबल एनर्जी का लक्ष्य ख़ासा बड़ा है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिहाज़ से विंड एनर्जी एक समय प्रमुख होती थी. हालांकि, हाल के रुझानों से पता चलता है कि विंड एनर्जी शायद वो ग्रोथ इंजन नहीं है जिसकी कई लोगों को उम्मीद थी.
पिछले एक साल में, विंड एनर्जी के उत्पादन में बमुश्किल ही कोई बदलाव आया है. अप्रैल 2023 और जनवरी 2024 के बीच, उत्पादन में 0.38 फ़ीसदी की गिरावट आई, जो एक समय तेज़ ग्रोथ वाले सेक्टर के लिए चिंताजनक संकेत है. ये सुजलॉन एनर्जी और आईनॉक्स विंड जैसे विंड टरबाइन OEM के बढ़ते वैल्यूएशन के विपरीत है. अर्निंग की तुलना में इसके 63-68 गुने पर ट्रेड करना जारी है. लेकिन क्या उनके ऊंचे वैल्यूएशन इस सेक्टर के आउटलुक को ध्यान में रखते हुए सही हैं? हम कुछ रुझानों पर ग़ौर करते हैं जो इसके विपरीत संकेत देते हैं.
क्लाइमेट चेंज: विंड पावर को सुस्त करने वाला अदृश्य हाथ
विंड सेक्टर के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक जलवायु परिवर्तन है, जो एक ऐसा फ़ैक्टर है जिसे रिन्युएबल एनर्जी की ग्रोथ पर चर्चा करते समय अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है. कंसोलिडेटेड एनर्जी कंसल्टेंट्स द्वारा हाल ही में की गई एक स्टडी से पता चला है कि बढ़ते तापमान के कारण हवा की गति कम हो रही है. इसका ऊर्जा उत्पादन पर संभावित प्रभाव बहुत गंभीर है. असल में, हवा की गति में हर एक मीटर प्रति सेकंड की गिरावट टर्बाइन से उत्पादन को 9 फ़ीसदी तक कम कर सकती है.
ये केवल एक दूर का मुद्दा नहीं है. आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्य पहले से ही ऊंचे तापमान के चलते कम उत्पादन का अनुभव कर रहे हैं.
भले ही, इससे इंडस्ट्री की अर्निंग तुरंत प्रभावित नहीं होगी, लेकिन इससे विंड एनर्जी के उत्पादन में लंबे समय तक चलने वाली ढांचागत मंदी की शुरुआत के संकेत मिलते हैं.
नीतिगत बाधाओं के कारण डिमांड में कमी आ रही है
जलवायु से जुड़े सप्लाई के खतरों के अलावा, नीतिगत बदलावों के कारण विंड एनर्जी की मांग का परिदृश्य भी उतना ही निराशाजनक है. एक बड़ा बदलाव इंटर स्टेट ट्रांसमिशन सिस्टम (ISTS) से जुड़ी छूट को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना है, जो वर्तमान में रिन्युएबल प्रोजेक्ट्स को अतिरिक्त शुल्क लगाए बिना बिजली का ट्रांसमिशन करने की अनुमति देता है. ये छूट 2028 तक वापस ले ली जाएगी, जिसके चलते बिजली ट्रांसमिशन की कॉस्ट में बढ़ोतरी होगी. परिणामस्वरूप, विंड पावर टैरिफ़ 2024 की ₹3.7 प्रति यूनिट से 65-80 फ़ीसदी तक बढ़ सकती है. इससे विंड एनर्जी की मांग कम हो सकती है क्योंकि बिजली उत्पादक कंपनियां संभावित रूप से सस्ते थर्मल सोर्सेज की ओर बढ़ सकती हैं. टर्बाइन बनाने वाली सुजलॉन और आईनॉक्स विंड पर स्वाभाविक रूप से इसका धीरे-धीरे प्रभाव पड़ेगा.
वास्तव में, बिजली उत्पादक कंपनियां डिस्पैच की बेहतर क्षमता प्रदान करने के लिए हाइब्रिड प्रोजेक्ट्स की ओर रुख कर रहे हैं, जिससे स्टैंडअलोन विंड प्रोजेक्ट्स की अपील कम हो रही है. इसी का असर है कि अक्तूबर 2024 तक नीलामी में आवंटित की गई लगभग 55 गीगावाट रिन्युएबल एनर्जी (विंड सहित) क्षमता अभी भी बिजली ख़रीद समझौतों (power purchase agreements) में बदल नहीं पाई है.
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उद्योग में भी इससे जुड़े तनाव के संकेत हैं. मिसाल के तौर पर, सुजलॉन एनर्जी ने हाल ही में लगभग 300 मेगावाट के ऑर्डर रद्द करने और कमी करने की घोषणा की है. हालांकि ऑर्डर रद्द होना असामान्य नहीं है, लेकिन टाटा पावर के विंड एनर्जी से दूरी बनाने से कमज़ोर मांग का एक और संकेत मिला है.
कभी क्लीन एनर्जी की मुखर समर्थक रही टाटा पावर अब अपनी थर्मल कैपेसिटी बढ़ा रही है. द इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, कुछ अधिकारियों ने बताया कि विंड प्रोजेक्ट्स में कम रिटर्न इस बदलाव का एक प्रमुख कारण था. जब टाटा पावर जैसी बड़ी और प्रभावशाली कंपनी ये कदम उठाती है, तो इससे एक मजबूत संकेत मिलता है कि विंड पावर कारोबार या कमाई के लिहाज़ से उतनी अनुकूल नहीं है जितना पहले सोचा गया था.
तकनीकी स्थिरता के बीच वैश्विक कंपनियों से जोखिम
मुख्य रूप से सुजलॉन और आईनॉक्स विंड जैसी विंड टर्बाइन बनाने वाली कंपनियों को लंबे समय से संरक्षणवादी नीतियों का फ़ायदा मिलता रहा है जो उन्हें वैश्विक प्रतिस्पर्धा से बचाती हैं. भले ही, इस प्रोत्साहन से भारतीय कंपनियों को घरेलू बाज़ार पर हावी होने में मदद मिली है, लेकिन इससे इनोवेशन में कमी आई है.
वैश्विक स्तर पर, विंड टर्बाइन OEM ज़्यादा शक्तिशाली टर्बाइनों की ओर बढ़ रहे हैं. इसमें ऑनशोर इंस्टॉलेशन के लिए 5-6 मेगावाट की यूनिट और ऑफशोर के लिए 10 मेगावाट से ज़्यादा की यूनिट्स शामिल हैं, जो कम लागत पर ज़्यादा एनर्जी का उत्पादन करने में मदद करती हैं. हालांकि, भारत में, ज़्यादातर नए इंस्टॉलेशन अभी भी 2-3 मेगावाट की सीमा में हैं, जिनमें उच्च क्षमता वाले टर्बाइनों के लिए सीमित विकल्प हैं. अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के दबाव के बिना, भारतीय मैन्युफैक्चरर्स के पास इनोवेशन करने या लागत कम करने के लिए बहुत कम प्रोत्साहन हैं, जिससे वे बेहतर वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिहाज़ से असुरक्षित हैं.
किन बातों पर ग़ौर करें निवेशक
विंड एनर्जी सेक्टर आपूर्ति में ठहराव, बढ़ती लागत, घटती मांग और तकनीकी ठहराव जैसी कई चुनौतियों का सामना कर रहा है. इसके अलावा, सुजलॉन और आईनॉक्स विंड जैसी कंपनियों की वित्तीय सेहत भी ख़राब बनी हुई है. भले ही, सुजलॉन ने अपने डेट-टू-इक्विटी रेशियो को 0.03 गुने के प्रभावशाली स्तर तक कम कर दिया है, लेकिन उसका फ़्री कैश फ़्लो नेगेटिव बना हुआ है. 1.9 गुना से ज़्यादा डेट-टू-इक्विटी रेशियो के साथ आईनॉक्स विंड का क़र्ज़ ख़ासा ज़्यादा है. इसे ध्यान में रखते हुए, उनका मौजूदा वैल्यूएशन वास्तविकता से ज़्यादा उम्मीदों पर आधारित है. एक अनदेखा जोखिम जो निवेशकों के तत्काल ध्यान देने योग्य है, वो ये है: अगर विंड सेक्टर अनुकूल स्थितियों में भी संघर्ष कर रहा है, तो क्या होगा जब हालात और बिगड़ जाएंगे?
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