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आप सोच सकते हैं कि अगर दो निवेशक एक ही शहर (सिंगापुर) से भारत-केंद्रित अरबों डॉलर के फ़ंड चला रहे हैं, तो उनके पास कुछ तो एक जैसा होगा — शायद एक साझा नज़रिया, कुछ ख़ास तरह के स्टॉक्स की पसंद-नापसंद, या रिस्क को लेकर एक जैसी सोच.
लेकिन समीर अरोड़ा और पुलक प्रसाद पूरी तरह विपरीत हैं — 'इतने पास, फिर भी इतने दूर'.
समीर अरोड़ा की निवेश फिलॉसफ़ी
हेलियोस कैपिटल (Helios Capital) के संस्थापक समीर अरोड़ा प्रक्रिया में भरोसा करते हैं. और सबसे ज़रूरी — फ़िल्टर्स में. वो न तो मल्टीबैगर की तलाश में रहते हैं, न ही भविष्य के कथानकों के पीछे भागते हैं. वो ग़लतियों को छांटते हैं — जैसे कि ख़राब गवर्नेंस, पूंजी के ग़लत इस्तेमाल की आदत, संभावित डिसरप्शन और टिकाऊ न होने वाला वैल्यूएशन.
उनकी आठ-स्तरीय चेकलिस्ट (थीम, इंडस्ट्री, डिसरप्शन रिस्क, मैनेजमेंट, गवर्नेंस, अकाउंटिंग, निकट भविष्य के ट्रिगर और वैल्यूएशन) का मक़सद हां कहना नहीं, बल्कि न कहना है. अगर कोई स्टॉक इस फ़िल्टर से बचकर निकल आता है, तो उसने अपनी जगह कमा ली है.
वो 2-3 साल की रोलिंग टाइम विंडो के साथ काम करते हैं. इतना लंबा कि कमाई का असर सामने आए, और इतना छोटा कि स्थिति के बदलने पर फ़ैसला बदला जा सके. अगर स्टॉक डिलीवर करता है, तो वो उसे होल्ड करते हैं. अगर नहीं, तो बिना किसी नाटक या भावनात्मक लगाव के आगे बढ़ जाते हैं.
उनके लिए बात अगला गूगल तलाशने की नहीं है — बल्कि अगला यस बैंक न बन जाए, इसकी सावधानी बरतने की है.
पुलक प्रसाद की निवेश फिलॉसफ़ी
पुलक प्रसाद इसके उलट सोचते हैं. वो तब तक बेचते नहीं जब तक कुछ टूट न जाए.
नालंदा कैपिटल (Nalanda Capital) के संस्थापक और 'What I Learned About Investing from Darwin' के लेखक प्रसाद सचमुच एक जीव विज्ञानी की तरह निवेश करते हैं.
वो उन बिज़नस की तलाश करते हैं जो विकास की दौड़ में फ़िट साबित हुए हों: मज़बूत, बिना कर्ज़ के, ऊंचे ROCE वाले, सांस्कृतिक रूप से स्थिर और अपनी संरचना में सरल. अगर कोई कंपनी समय के साथ टिकती रही है (और ऊंचे रिटर्न देती रही है), तो उनकी दिलचस्पी बनती है. अगर नहीं, तो वे चुपचाप आगे बढ़ जाते हैं.
वो भविष्य की मॉडलिंग नहीं करते. बल्कि अतीत की जांच करते हैं. क्योंकि उनका मानना है कि आज का प्रदर्शन, कल के अनुमान से बेहतर सुराग देता है.
और एक बार जब वे कोई स्टॉक ख़रीदते हैं, तो उसे सालों — और कभी-कभी दशकों — तक होल्ड करते हैं. उनकी टीम ये सोचने में वक़्त नहीं लगाती कि कब बेचना है. बल्कि वो इस पर ध्यान देती है कि क्या ये बिज़नस अब भी रखने लायक़ है.
विरोधी लेकिन समान रूप से सफल निवेश शैलियां
अब अहम बात ये है — दोनों रणनीतियां काम करती हैं. अरोड़ा की रणनीति है कि कहां और कब लड़ाई लड़ी जाए — सोच-समझकर चुनो. प्रसाद की रणनीति है — एक लंबी शादी जैसा रिश्ता बनाओ.
लेकिन दोनों में जो कॉमन है, वो है — स्पष्टता. यही वो चीज़ है जो ज़्यादातर निवेशकों में नहीं होती.
लोग इसलिए नुक़सान नहीं करते कि उन्होंने ग़लत स्टॉक चुना — बल्कि इसलिए कि उन्हें ये ही नहीं पता था कि वे क्या कर रहे हैं. हम दूसरों की शैली अपनाते हैं, पोर्टफ़ोलियो कॉपी करते हैं, कभी मोमेंटम में, तो कभी वैल्यू की तरफ़ जाते हैं. हम हमेशा पूछते हैं — "क्या ख़रीदना चाहिए?"
लेकिन कभी नहीं पूछते — "मैं किस तरह का निवेशक हूं?" अरोड़ा और प्रसाद शायद ज़्यादा बातों पर सहमत नहीं होंगे.
लेकिन उन्हें पता है कि वे कौन हैं, क्या चाहते हैं, और किसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं. वे न तो एक-दूसरे की तरह बनने की कोशिश करते हैं — और न ही सबकी तरह.
स्पष्टता चतुराई से बेहतर है. फ़िलॉसफ़ी अंदाज़ा लगाने या पूर्वानुमान से बेहतर है. एक ऐसी दुनिया में जहां पूंजी बहुत है लेकिन भरोसा कम, शायद असली अल्फ़ा इस बात में नहीं है कि आप कौन-से स्टॉक्स चुनते हैं — बल्कि इसमें है कि आप कौन-सा लेंस चुनते हैं जब स्टॉक्स चुनना आसान नहीं रहता.
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ये लेख पहली बार अप्रैल 24, 2025 को पब्लिश हुआ.